प्रभु प्रेमियों ! आबाल ब्रह्मचारी सदगुरु महर्षि मँहीँ परमहंस जी महाराज ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त-साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक वयवहार में चाहे वो प्रवचन हो, पुस्तक लेखन हो अथवा उनकी कोई व्यवहारिक कार्य हो सब जगह किया गया है । इतने लम्बे अरसे से वेद , उपनिषद् एवं सन्तवाणियों का अध्ययन तथा मनन एवं उनके अन्तर्निहित निर्दिष्ट साधनाओं का अभ्यास करते हुए परमपूज्य सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव मात्र सदाचार - समन्वित हो दृष्टियोग और शब्दयोग ( नादानुसंधान ) अर्थात् विन्दुध्यान और नादध्यान के द्वारा ब्रह्म - ज्योति और ब्रह्मनाद की उपलब्धि कर परम प्रभु सर्वेश्वर को उपलब्ध कर सकता है । इसी विषय का स्पष्टीकरण उन्होंने जीवन भर किया है । साथ ही उन्होंने यह भी समझाने की भरपूर चेष्टा की है कि प्राचीन कालिक मुनि - ऋषियों से लेकर अर्वाचीन साधु - संतों तक की अध्यात्म - साधना पद्धति एक है। इस बात की पुष्टि उन्होंने जीवन भर अपने प्रत्येक व्यवहार में किया है . इस पुस्तक में जो संस्मरण है वह इन सभी बातों की पुष्टि करता है.
हमारा विश्वास है कि जब आप इस पुस्तक का अध्ययन-मनन एवं चिंतन करेंगे तो आप एक अलौकिक आनंद अनुभव करेंगे जो अध्यात्म-प्रेमी एवं गुरु-प्रेमी है उनको तो ऐसा लगेगा कि हम पुनः गुरुदेव के दर्शन, सत्संग का आनंद प्राप्त कर रहे हैं.
अधिक क्या कहा जाए पुस्तक निम्न चित्रों में आपके सामने प्रस्तुत है . आप स्वयं इसको पढ़े और इससे विशेष लाभ उठाएं. जय गुरु महाराज